हर बात पे ताना, हर अंदाज़ मैं गुस्सा
क्यों साफ़ नही कहते, मुहबत नहीं रही
गैरों पे करम, अपनों पे सितम करते हो
फिर शान से कह्ते हो कुर्बत नही रही
सहेर में तपिश में, जब तुमने हमें छोड़ा
इस हुसन के बाज़ार में, वो कीमत नही रही
माना के हम से, भी बुहत गलतिया हुई
शायद के दर-गुज़र, की तुम्हे आदत नही रही
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