फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को
भूला हुआ था देर से में अपने आप
रहते हैं कुछ मलूल[sad] से चेहरे पड़ोस में
इतना न तेज़ कीजिए ढोलककी थाप को
अश्कों की एक नहर थी जो खुश्क हो गयी
क्यूँ कर मिटाऊँ दिल से तेरे गम की छाप को
कितना ही बे-किनार समंदर हो, फिर भी दोस्त
रहता है बे-करार नदी के मिलाप को
पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें
फिर आईने में चूम लिया अपने आपको
तारीफ़ क्या हो कामत-ए-दिलदार की शकेब
ताज्सीम कर दिया है किसी ने अलाप को
Saturday, April 4, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment