एक साया मेरा मसीहा था !
कौन जाने, वो कौन था, कया था ?
वो फ़क़त सेहन तक ही आती थी
मैं भी हुजरे से कम निकलता था
तुझको भूला नहीं वो शख्स के जो
तेरी बाहों में भी अकेला था
जां लेवा थी खाहिशें वर्ना
वसल से इंतज़ार अच्छा था
बात तो दिल-शिकन है पर, यारो !
अक्ल सच्ची थी, इश्क झूठा था !
अपने मेयर तक ना पहुंचा मैं
मुझको खुद पर बड़ा भरोसा था
जिस्म की साफ़-गोई के बा-वस्फ़
रूह ने कितना झूठ बोला था !
Saturday, January 17, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment