ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिजाज पाया था
मुआफ कर न सकी मेरी जिंदगी मुझको
वो एक लम्हा की मैं तुझसे तंग आया था
शगुफ्ता फूल सिमटकर कली बनी जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था
गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरार की तरह
अभी तो मैं उससे पहचान भी न पाया था
पता नही की मेरे बाद उन् पे क्या गुजरी
मैं चाँद ख्वाब ज़माने में छोड़ आया था
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