अपनी तस्वीर को आंखों से लगता क्या है
इक नज़र मेरी तरफ़ देख तेरा जाता क्या है
मेरी रुसवाई में तू भी है बराबर का शरीक
मेरे किस्से मेरे यारों को सुनाता क्या है
पास रहकर भी न पहचान सका तू मुझको
दूर से देख कर अब हाथ हिलाता क्या है
सफर-ए-शौक़ में क्यूँ कांपते हैं पाँव तेरे
दूर से देख कर अब हाथ उठाता क्या है
उम्र भर अपने गिरेबान से उलझाने वाले
तू मुझे मेरे साए से डराता क्या है
मर गए प्यास के मारे तो उठा अब्र-ए-करम
बुझ गई बज्म तो अब शमा जलाता क्या है
मैं तेरा कुछ भी नहीं हूँ, मगर इतना तो बता
देख कर मुझको तेरे जेहन में आता क्या है
Sunday, May 31, 2009
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