बातें तो हजारों हैं मिलूं भी तो कहूँ क्या
ये सोच रहा हूँ कि उसे खत में लिखूँ क्या
आवारगी-ए-शौक़ से सड़कों पे नहीं हूँ
हालात से मजबूर हूँ मैं और करूं क्या
करते थे बोहत साज़ और आवाज़ की बातें
अब इल्म हुआ हमको कि है सोज़-ए-दुरूं क्या
मरना है तो सुकरात की मानिंद पियूं ज़हर
इन रंग बदलते हुए चेहरों पे मरूं क्या
फितरत भी है बेबाक सदाकत का नशा भी
हर बात पे खामोश रहूं, कुछ न कहूँ क्या
जिस घर में न हो ताजा हवाओं का गुज़र भी
उस घर की फसीलों में भला क़ैद रहूं क्या
मुरझा ही गया दिल का कँवल धूप में आरिफ
खुश्बू की तरह इस के ख्यालों में बसूँ क्या
Thursday, April 30, 2009
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