ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बोहत
दिल लगा कर हम तो पछताए बोहत
दैर से सू-ए-हरम आया न टुक
हम मिजाज अपना इधर लाये बोहत
फूल, गुल, शम्स-ओ-क़मर सारे ही थे
पर हमें उनमें तुम ही भाये बोहत
गर बुका इस शोर से शब् को है तो
रोवेंगे सोने को हमसाये बोहत
मीर से पूछा जो मैं आशिक हो तुम
हो के कुछ चुपके से शरमाये बोहत
Tuesday, March 31, 2009
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